वो दिल की झील में उतरा था एक साअ’त को
ये उम्र हो गई है सहते इस मलामत को,
कहीं तो साया ए दीवार ए आगही मिल जाए
कोई तो आए करे ख़त्म इस मसाफ़त को,
तुम्हीं से मिल के मेरी दिल से आश्नाई हो
तुम्हारे बाद ही जाना है इस क़यामत को,
वो एक शख़्स मुझे कर गया सभी से जुदा
तरस रहा हूँ मैं जिस शख़्स की रिफ़ाक़त को,
अजीब लोग हैं इस शहर के ब नाम ए वफ़ा
हवाएँ देते हैं हर शोला ए अदावत को,
जवाज़ भी तो कोई हो मेरी तबाही का
छुपा रहे हो तबस्सुम में क्यों नदामत को,
गए दिनों का मनाते हो सोग फिर ‘आबिद’
हमें यक़ीं है न बदलोगे अपनी आदत को..!!
~आबिद जाफ़री