वो सर फिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे

वो सर फिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
मैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझे,

महसूस कर रहा था उसे अपने आस पास
अपना ख्याल ख़ुद ही बदलना पड़ा मुझे,

सूरज ने छुपते छुपते उजागर किया तो था
लेकिन तमाम रात पिघलना पड़ा मुझे,

मौज़ू ए गुफ़्तुगू थी मेरी ख़ामोशी कहीं
जो ज़हर पी चुका था उगलना पड़ा मुझे,

कुछ दूर तक तो जैसे कोई मेरे साथ था
फिर अपने साथ आप ही चलना पड़ा मुझे..!!

~अमीर क़ज़लबाश

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