समझता खूब है वो भी बयान की कीमत
चुका रहा है जो अब भी ज़ुबान की कीमत,
इसी मुकाम पे समझा तमाम रिश्तों को
लगा रहा हूँ जब अपने मकान की कीमत,
बड़ा ग़ुरूर, बड़ी हैसियत, बड़ी बातें
अकाल हो तो समझते हैं धान की कीमत,
किसी ने माना किसी ने कभी नहीं माना
गिराई फिर भी सभी ने पुरान की कीमत,
नहीं चला सके एक तीर भी निशाने पर
वही लगाते हैं अक्सर कमान की कीमत,
लहू बहाओ भले रोज़ रोज़ कितना ही
तुम्हें चुकाना ही होगा क़ुरान की कीमत,
तुम्हारे वास्ते एक वोट हैं महज़ अब भी
लगा रहे हैं यहाँ पर वो जान की कीमत..!!
~महेंद्र अग्रवाल