समंदर और साहिल प्यास की ज़िन्दा अलामत है

तुम्हारा मुन्तज़िर हूँ तो हज़ारों घर बनाता हूँ
वो रस्ते बनते जाते है कुछ इतने दर बनाता हूँ,

जो सारा दिन मेरे ख़्वाबो को रेज़ा रेज़ा करते है
मैं उन लम्हों को सी कर रात का बिस्तर बनाता हूँ,

हमारे दौर में रक्कासा के पाँव नहीं होते
अधूरे ज़िस्म लिखता हूँ खामिदा सर बनाता हूँ,

समंदर और साहिल प्यास की ज़िन्दा अलामत है
उन्हें मैं तिश्नगी की हद को भी छू कर बनाता हूँ,

मेरे जज्बो को लफ्ज़ो की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अन्दर बनाता हूँ..!!

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