राब्ता ज़िस्म का जब रूह से कट जाता है

राब्ता ज़िस्म का जब रूह से कट जाता है
आदमी मुख्तलिफ़ हालात में बँट जाता है,

देख कर साहिल दरिया का सकूत पैहम
चढ़ के आया हुआ तूफ़ान भी पलट जाता है,

आईना देख कर होता है तौहम का असीर
क़द तो वही होता है पर आदमी घट जाता है,

कोई ख़ुशबू गम ए हालात को मिलती होगी
साँप बन के जो रग ए जाँ से लिपट जाता है,

फिर उसे मिलती नहीं मंज़िल ए मक़सूद कभी
जादा ए इश्क़ से एक गाम जो हट जाता है,

दिल भी क्या शय है भला देता है सारे मज़मून
और एक लफ्ज़ जो मक़सूद है रट जाता है,

हर नई सुबह का मज़मून नया है नवाब
हर नई सुबह को एक सफहा पलट जाता है..!!

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