यूँ अपनी गज़लों में न जताता कि…
यूँ अपनी गज़लों में न जताता कि मोहब्बत क्या है गर मिलते तो कर के …
यूँ अपनी गज़लों में न जताता कि मोहब्बत क्या है गर मिलते तो कर के …
आयत ए हिज्र पढ़ी और रिहाई पाई हमने दानिस्ता मुहब्बत में जुदाई पाई, जिस्म ओ …
लाई है किस मक़ाम पे ये ज़िंदगी मुझे महसूस हो रही है ख़ुद अपनी कमी …
ख़ुशी ने मुझको ठुकराया है दर्द ओ गम ने पाला है गुलो ने बे रुखी …
दरबार ए वतन में जब एक दिन सब जाने वाले जाएँगे कुछ अपनी सज़ा को …
सज़ा पे छोड़ दिया, कुछ जज़ा पे छोड़ दिया हर एक काम को अब मैंने …
उसको जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ रोकते किस तरह वो शख़्स हमारा था …
दर्द अब वो नहीं रहें जो ऐ दिल ए नादां पहले था खुले सर पर …
देखोगे हमें रोज़ मगर बात न होगी एक शहर में रह कर भी मुलाक़ात न …