कैसी महफ़िल है ज़ालिम तेरे शहर में
यहाँ हर कोई ही डूबा हुआ है ज़हर में,
एक बच्ची तलक तो यहाँ महफूज़ नहीं
इन वहशी और उन दरिंदो के क़हर में,
खेल तो बस चलता सियासत का यहाँ
डूबते है सिर्फ़ हम ही यहाँ हर लहर में,
ज़िस्म क्या हर एक रूह तक में ज़ख्म है
जिधर देखो भेड़िये ही भेड़िये है हर नज़र में,
उस पर सियासी चाल की अपनी ग़ज़ल
हर एक सुनाता है शफ़क़ अपनी ही बहर में..!!