कैसे सुनाऊँ ग़म की कहानी साँसों पर है बार बहुत
माज़ी कहता है कह जाओ हाल को है इंकार बहुत,
आप पशेमाँ आख़िर क्यों हैं मुझ को कुछ भी याद नहीं
किस की मोहब्बत कैसी कहानी किस से किया था प्यार बहुत,
टूटा माज़ी का आईना यादों की बिखरी किर्चें
ज़ेहन के ज़ख़्मी तलवे अब हैं चलने से बेज़ार बहुत,
पौ फूटे पर कश्ती ए दिल थी वर्ता ए ज़ुल्मत ही में अभी
यूँ तो चलाई शब के समुंदर में हम ने पतवार बहुत,
भाग चलूँ यादों के ज़िंदाँ से अक्सर सोचा लेकिन
जब भी क़स्द किया तो देखा ऊँची है दीवार बहुत,
ठिठका तो था फिर जाने क्या सोच के आगे बढ़ता गया
पा ए वफ़ा में यूँ तो चुभे थे तेरी जफ़ा के ख़ार बहुत,
तर्क ए तअल्लुक़ से एक मेरा दिल ही नहीं है कुछ ज़ख़्मी
तीर हुए ही होंगे तेरे सीने के भी पार बहुत..!!
~वहीद अर्शी