कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से

कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से
मेरे क़दमों पे मेरा सर है कई सदियों से,

ख़ौफ़ रहता है न सैलाब कहीं ले जाए
मेरी पलकों पे तेरा घर है कई सदियों से,

अश्क आँखों में सुलगते हुए सो जाते हैं
ये मेरी आँख जो बंजर है कई सदियों से,

कौन कहता है मुलाक़ात मेरी आज की है
तू मेरी रूह के अंदर है कई सदियों से,

मैं ने जिस के लिए हर शख़्स को नाराज़ किया
रूठ जाए न यही डर है कई सदियों से,

उस को आदत है जड़ें काटते रहने की वसी
जो मेरी ज़ात का मेहवर है कई सदियों से..!!

~वसी शाह


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