कहते हैं ईद है आज अपनी भी ईद होती
हम को अगर मयस्सर जानाँ की दीद होती,
क़ीमत में दीद-ए-रुख़ की हम नक़्द-ए-जाँ लगाते
बाज़ार-ए-नाज़ लगता दिल की ख़रीद होती,
कुछ अपनी बात कहते कुछ मेरा हाल सुनते
नाज़-ओ-नयाज़ की यूँ गुफ़्त-ओ-शुनीद होती,
जल्वे दिखाते जाते वो तर्ज़-ए-दिलबरी के
और दिल में याँ हवा-ए-नाज़-ए-मज़ीद होती,
तेग़-ए-नज़र से दिल पर वो वार करते जाते
और लब पे याँ सदा-ए-हल-मिम-मज़ीद होती,
अबरू से उन के ग़म्ज़ा तीर-ए-अदा लगाता
ये दिल क़तील होता ये जाँ शहीद होती,
कुछ हौसला बढ़ाता अंदाज़-ए-लुत्फ़-ए-जानाँ
कुछ दग़दग़ा सा होता कुछ कुछ उमीद होती..!!
~ग़ुलाम भीक नैरंग