कभी बहार का मौसम नया दिखाई दे
गुलाब बातें करें और सबा दिखाई दे,
शब ए जुनूँ है कोई मो’जिज़ा दिखाई दे
किसी मकाँ का कोई दर खुला दिखाई दे,
मैं चाहूँ तिश्नालबी क्या से क्या दिखाई दे
तमाम जू ए रवाँ आबला दिखाई दे,
तमाम शब के अँधेरे लें इंतिक़ाम अगर
चराग़ छीनने वाली हवा दिखाई दे,
हिसार ए तीरा शबी पर नज़र जमाए रहो
अजब नहीं कि कोई रास्ता दिखाई दे,
बताए कौन हमें कर्ब ज़र्द मौसम का
शजर में कोई तो पत्ता हरा दिखाई दे,
तू मेरे ज़ेहन पे छा जाए ख़ुशबुओं की तरह
मैं फूल देखूँ सरापा तिरा दिखाई दे,
मिज़ाज ऐसा बने आप ही की आँखों को
बहे किसी का लहू आपका दिखाई दे,
वहाँ तलाश न करना कभी मुझे ‘काज़िम’
जहाँ किसी का कोई नक़्श ए पा दिखाई दे..!!
~काज़िम जरवली