एक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा

एक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा

एक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा
नींद आ गई थी रात मगर जागता रहा,

संगीन हादसों में भी हँसती रही हयात
पत्थर पे एक गुलाब हमेशा खिला रहा,

दुनिया को उस निगाह ने दीवाना कर दिया
मैं वो सितम ज़रीफ़ कि बस देखता रहा,

एक बार इसे भी ज़रूर पढ़े : ऐ मेरे हम नशीं चल कहीं और चल

 

एक अजनबी महक सी लहू में रची रही
नग़्मा सा जान ओ तन में कोई गूँजता रहा,

अब जा के ये खुला कि हर एक शख़्स दोस्तो
हर शख़्स को लिबास से पहचानता रहा,

फ़िक्र ए सुख़न में रात जो आया ख़याल ए मीर
ता देर डाइरी पे क़लम काँपता रहा,

साग़र तमाम उम्र की गर्दिश के बावजूद
मैं उस निगाह ए नाज़ से ना आश्ना रहा..!!

~साग़र मेहदी

 

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