मेरे नग़्मात को अंदाज़ ए नवा याद नहीं…

है दुआ याद मगर हर्फ़ ए दुआ याद नहीं
मेरे नग़्मात को अंदाज़ ए नवा याद नहीं,

मैं ने पलकों से दर ए यार पे दस्तक दी है
मैं वो साइल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं,

मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू
हम से कहते हैं वही अहद ए वफ़ा याद नहीं,

कैसे भर आईं सर ए शाम किसी की आँखें
कैसे थर्राई चराग़ों की ज़िया याद नहीं,

सिर्फ़ धुँधलाए सितारों की चमक देखी है
कब हुआ कौन हुआ किस से ख़फ़ा याद नहीं,

ज़िंदगी जब्र ए मुसलसल की तरह काटी है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं,

आओ इक सज्दा करें आलम ए मदहोशी में
लोग कहते हैं कि ‘साग़र’ को ख़ुदा याद नहीं..!!

~साग़र सिद्दीक़ी

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