गुलों में रंग न खुशबू, गरूर फिर भी है…

गुलों में रंग न खुशबू, गरूर फिर भी है
नशे में रूप के वो चूर-चूर फिर भी है,

रंगे हैं हाथ गुनाहों से बाँह तक लेकिन
शहर में नाम तुम्हारा हजूर फिर भी है,

उसे भले ही डकैती का गुर नहीं मालूम
गिरहकटी का उसे कुछ शऊर फिर भी है,

नई बहू तो हजारों में एक है लेकिन
नज़र में सास के वो बेशऊर फिर भी है,

कटेगी उम्र हवाओं का रुख बदलने में
बुझे चिराग तो मेरा कसूर फिर भी है,

वो राम नाम जपेंगे और ये पढ़ेंगे नमाज़
मगर दिमाग में उनके फितूर फिर भी है..!!

~राम अवध विश्वकर्मा

 

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