घर के ज़िंदाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी
जाँ फ़ज़ा बातों से आ के मेरा दिल बहलाए भी,
लग के ज़िंदाँ की सलाख़ों से मुझे वो देख ले
कोई ये पैग़ाम मेरा उस तलक पहुँचाए भी,
एक चेहरे को तरसती हैं निगाहें सुब्ह ओ शाम
ज़ौ फ़िशाँ ख़ुर्शीद भी है चाँदनी के साए भी,
सिसकियाँ लेती हवाएँ फिर रही हैं देर से
आँसुओं की रुत मेरे अब गुलसिताँ से जाए भी,
रोज़ हँसता है सलीबों से उधर माह ए मुनीर
उस के पीछे कौन है वो छब मुझे दिखलाए भी..!!
~हबीब जालिब

























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