एक वो दौर कि मिन्नतें करता था वफ़ा निभाने की

एक वो दौर कि मिन्नतें करता था वफ़ा निभाने की
एक ये वक़्त कि उसे आरज़ू है दामन छुड़ाने की,

नसीब में ही न लिखा था अपने विसाल ए यार वरना
तमन्ना उसकी भी बड़ी थी मुझ को अपनाने की,

मैं पड़ोस में लगी आग को बुझाता रहा
ख़बर ही न रही अपने जलते हुए आशियाने की,

हो चुकी सूख सड़ कर जब फ़सलें तबाह
हुई तौफ़ीक बादलों को बारिश बरसाने की,

उन हसीं आँखों के समंदर में डूब कर उमर
कौन तमन्ना करे उभर कर फिर साहिल पाने की..??

~उमर दराज़ मार्थ

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