एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ
एक तरफ़ ख़ामोशी कर दूँ एक तरफ़ आबाद करूँ,
मंज़िल-ए-शब जब तय करनी है अपने अकेले दम से ही
किस के लिए इस जगह पे रुक कर दिन अपना बर्बाद करूँ,
बहुत क़दीम का नाम है कोई अब्र-ओ-हवा के तूफ़ाँ में
नाम जो मैं अब भूल चुका हूँ कैसे उस को याद करूँ,
जा के सुनूँ आसार-ए-चमन में साएँ साएँ शाख़ों की
ख़ाली महल के बुर्जों से दीदार-ए-बर्क़-ओ-बाद करूँ,
शे’र ‘मुनीर’ लिखूँ मैं उठ कर सेहन-ए-सहर के रंगों में
या फिर काम ये नज़्म-ए-जहाँ का शाम ढले के ब’अद करूँ..!!
~मुनीर नियाज़ी