एक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया
हमको परवाज़ का मौक़ा ही हवा ने न दिया,
तू ख़ुदा बन के मिटाएगा हमें ही एक दिन
सर तेरे दर पे इसी डर ने झुकाने न दिया,
मुत्तहिद होने का जज़्बा था सभी में लेकिन
मुत्तहिद होने का मौक़ा ही हवा ने न दिया,
तुम पे छा जाते शजर बनते जो नन्हे पौधे
तुम ने अच्छा ही किया पाँव जमाने न दिया,
वो तो आमादा था बंदों की शिकायत सुन कर
कुछ फ़रिश्तों ने ज़मीं पर उसे आने न दिया,
आप डरते हैं कि खुल जाए न असली चेहरा
इस लिए शहर को आईना बनाने न दिया..!!
~मंज़र भोपाली