बशर तरसते है उम्दा खानों को मौत पड़ती है हुक्मरानो को…

बशर तरसते है उम्दा खानों को
मौत पड़ती है हुक्मरानो को,

ज़ुर्म आज़ाद फिर रहा है यहाँ
बेकसों से भरे ये थानों को,

छुप के बैठेगा तू कहाँ हमसे
जानते है तेरे हर ठिकाने को,

सर पे रखते है हम ज़मी लेकिन
ज़ेर ए पा अपने आसमानों को,

आये दिन इनके बीच दंगल है
देखो गत्ते के इन पहलवानों को,

क्या ये कम है कि बोलने को जुबां
मिल गई हम जैसे बेजुबानो को,

यही धरती का सीना चाक करें
और रोटी नहीं किसानो को,

एक नया मसला हुआ दरपेश
फिर से सहरा के ऊँट बानो को,

चारो सू सरफिरी हवा का राज़
तय नहीं रखना बादबानो को,

कर के वायदा जो कल नहीं आया
बीच लाएगा फिर बहानो को,

हमने थोडा क़लम ज़िहाद किया
याद रखना है इन तरानों को,

हुस्न ए इखलास और रवादारी
आओ ढूँढे फिर इन खज़ानो को,

ज़िन्दगी क़ैद में गुज़ारी है
भूल बैठे है अब उड़ानों को,

हमने सीखा है आह भरना बस
याद कर के गए ज़मानो को,

उसको ज़ुल्फे बिखेरना तो थी
शान बख्शी हमारे शानो को,

सच को हम सच से ही मापेंगे
चाहे वो भले ही तान ले कमानों को..!!

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