अपने ही भाई को हमसाया बनाते क्यूँ हो
अपने सहन के बीच में दीवार लगाते क्यूँ हो ?
एक न एक दिन तो उन्हें टूट कर बिखरना ही है
ख़्वाब फिर ख़्वाब हैं, ख़्वाबों को सजाते क्यूँ हो ?
कौन सुनता है यहाँ ? कौन है सुनने वाला ?
ये समझते हो तो फिर आवाज़ उठाते क्यूँ हो ?
ख़ुद को भूले हुए गुज़रे हैं ज़माने यारो
अब मुझे तुम मेरा एहसास दिलाते क्यूँ हो ?
अपने चेहरों पे जो ख़ुद आप ही पत्थर फेंकें
ऐसे लोगों को तुम आईना दिखाते क्यूँ हो ?
अपनी तो तक़दीर है तूफ़ानों से लड़ते रहना
अहल ए साहिल की तरफ़ हाथ बढ़ाते क्यूँ हो ?
आज के दौर का मौसम ही है ग़ुबार आलूदा
फिर आइने पर कोई तहरीर बिछाते क्यूँ हो ?
कुछ दलाएल कोई मा’नी नहीं रखते आज़र
फिर कहने वाले की हर एक बात पे जाते क्यूँ हो ?
~मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी