निगाह बर्क़ नहीं चेहरा आफ़्ताब नहीं

निगाह बर्क़ नहीं चेहरा आफ़्ताब नहीं
वो आदमी है मगर देखने की ताब नहीं,

गुनह गुनह न रहा इतनी बादा नोशी की
अब एक शग़्ल है कुछ लज़्ज़त ए शराब नहीं,

हमें तो दूर से आँखें दिखाई जाती हैं
नक़ाब लिपटी है उस पर कोई इताब नहीं,

पिए बग़ैर चढ़ी रहती है हसीनों को
वहाँ शबाब है क्या कम अगर शराब नहीं,

बहार देता है छन छन के नूर चेहरे का
सर ए नक़ाब है जो कुछ तह ए नक़ाब नहीं,

वो अपने अक्स को आवाज़ दे के कहते हैं
तेरा जवाब तो मैं हूँ मेरा जवाब नहीं,

उसे भी आप के होंटों का पड़ गया चसका
हज़ार छोड़िए छुटने की अब शराब नहीं,

बुतों से पर्दा उठाने की बहस है बेकार
खुली दलील है काबा भी बे नक़ाब नहीं,

जलील ख़त्म न हो दौर ए जाम ए मीनाई
कि इस शराब से बढ़ कर कोई शराब नहीं..!!

~जलील मानिकपूरी

देखा जो हुस्न ए यार तबीअत मचल गई

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