छुप गया ख़ुर्शीद ए ताबाँ आई दीवाली की शाम
हर तरफ़ जश्न ए चराग़ाँ का है कैसा एहतिमाम
डेवढ़ियों पर शादयाने ऐश के बजने लगे
और रंगीं क़ुमक़ुमों से बाम-ओ-दर सजने लगे
इत्र ओ अंबर से हवा है किस क़दर महकी हुई
ख़ुशनुमा महताबियों से है फ़ज़ा दहकी हुई
फुलझड़ी से फूल यूँ झड़ते हैं जैसे कहकशाँ
हर तरफ़ फैला फ़ज़ा में है पटाख़ों का धुआँ
क्या मज़े की आतिश-अफ़्शानी है अग्नी-बान की
देख कर अश अश करे जिस को नज़र इंसान की
हैं सितारों की ये लड़ियाँ या चराग़ों की क़तार
कूचा ओ बाज़ार के दीवार ओ दर हैं नूर बार
बढ़ रहा है सूरत ए सैलाब लोगों का हुजूम
हर दुकाँ पर गाहकों का शोर ओ ग़ुल है बिल उमूम
रौशनी बन कर ख़ुशी हर सम्त है छाई हुई
एक ख़िल्क़त जिस के जल्वों की तमाशाई हुई..!!
~मोहम्मद सिद्दीक़ मुस्लिम