आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशनदानों पर,
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मेरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ साड़ी की दूकानों पर,
बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर,
शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर,
सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुलदानों पर,
उस का क्या मनभेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रखे कानों पर,
और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर,
शेर तो उन पर लिखे लेकिन औरों से मंसूब किए
उनको क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर,
यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिखे जाएँ इन रूमानों पर..!!
~जाँ निसार अख़्तर