ज़िन्दगी बस एक ये लम्हा मुझे भी भा गया
आज बेटे के बदन पर कोट मेरा आ गया,
भोर की पहली किरन बरगद तले झोंका नया
जिस्म सारा ओस की बूंदों से यूँ नहला गया,
हूँ बहुत ही खुश बुढ़ापे में बहू बेटों के संग
चाहतों का एक नया मौसम मुझे हर्षा गया,
दुश्मनी मुझको विरासत में मिली थी, खेत भी
क़ातिलों से मिलके लौटा गांवभर में छा गया,
ये अलग है खिल नहीं पाया चमन पूरी तरह
मेरा जादू शाख़ पर कुछ सुर्खियां तो ला गया,
बेवकूफी जल्दबाजी में चुना सरदार था
खेत की ही मेड़ जैसा खेत को ही खा गया..!!
~महेंद्र अग्रवाल