ता हद्द ए नज़र कोई भी दम साज़ नहीं है

ता हद्द ए नज़र कोई भी दम साज़ नहीं है
या फिर मेरी चीख़ों में ही आवाज़ नहीं है,

हंगामे हैं इस दर्जा बपा ख़ल्वत ए जाँ में
अब दिल के धड़कने की भी आवाज़ नहीं है,

शायद मैं उसी एक कहानी का हूँ किरदार
अंजाम है जिस का मगर आग़ाज़ नहीं है,

अल्लाह ये क्या मंज़िल ए अर्ज़ानी ए जाँ है
क़ातिल हैं हर एक मोड़ पे दम साज़ नहीं है,

जो ख़त है लिफ़ाफ़े में उसे ग़ौर से पढ़िए
चेहरा मेरे हालात का ग़म्माज़ नहीं है..!!

~सलीम अंसारी

चराग़ों से हवाएँ लड़ रही हैं

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