कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता…

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता,

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता,

कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता,

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता,

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता..!!

~निदा फाज़ली

Leave a Reply