रहोगे हम से कब तक बेख़बर से
जुदा होती नहीं दीवार दर से,
मुसाफ़िर हाल क्या अपना सुनाए
अभी लौटा नहीं अपने सफ़र से,
हमेशा तो नहीं रहता है क़ाएम
तअ’ल्लुक़ राह रौ का रहगुज़र से,
मकानों से मकीं रुख़्सत हुए हैं
उदासी झाँकती है बाम ओ दर से,
अभी तक हूँ सफ़र में इर्तिक़ा के
मुझे लगते थे रस्ते मुख़्तसर से,
इसी मिट्टी से है पहचान मेरी
मोहब्बत है मुझे भी अपने घर से,
न जाने उन पे क्या गुज़री थी शाहिद
जुदा पत्ते हुए थे जब शजर से..!!
~हफ़ीज़ शाहिद