न होता दहर से जो बेनियाज़ क्या करता
खुला था मुझ पे कुछ ऐसा ही राज़ क्या करता
मरीज़ कश्मकश ए जब्र ओ इख़्तियार में था
इलाज ए जज़्ब ओ कशिश चारासाज़ क्या करता
तेरे करम ने तो दुनिया ही सौंप दी थी मुझे
बचा के कुछ न रखा हिर्स ओ आज़ क्या करता
बिगड़ गया मेरा हुलिया तो बरहमी कैसी
थे रहगुज़र में नशेब ओ फ़राज़ क्या करता
मुझे ख़बर थी कि मैं भी तेरे सबब से हूँ
फिर अपनी ज़ात पे मैं फ़ख़्र ओ नाज़ क्या करता
तमाम उम्र रहे पहरेदार काँधों पर
तेरे ख़िलाफ़ ऐ अंजुम नवाज़ क्या करता..??
~अशफ़ाक़ अंजुम