मुक़द्दर ने कहाँ कोई नया पैग़ाम लिखा है
अज़ल ही से वरक़ पर दिल के तेरा नाम लिखा है,
क़दम में जानिब ए मंज़िल बढ़ाऊँ क्या कि क़िस्मत ने
जहाँ आग़ाज़ लिखा था वहीं अंजाम लिखा है,
शिकायत क्या करूँ साक़ी से मैं उसके तग़ाफ़ुल की
मेरे होंठो के हिस्से ही में ख़ाली जाम लिखा है,
हमें हैं मुंतख़ब रोज़ ए अज़ल से दर्द की ख़ातिर
हमारे नामा ए क़िस्मत में हर इल्ज़ाम लिखा है,
मुसलसल ग़म मुसलसल दर्द से तंग आ के ऐ ‘साहिल’
हम ऐसे अहल ए फ़ुर्क़त ने सहर को शाम लिखा है..!!