मुझे ऐसा लुत्फ़ अता किया कि जो हिज्र था न विसाल था
मेरे मौसमों के मिज़ाज दाँ तुझे मेरा कितना ख़याल था,
किसी और चेहरे को देख कर तेरी शक्ल ज़ेहन में आ गई
तेरा नाम ले के मिला उसे मेरे हाफ़िज़े का ये हाल था,
कभी मौसमों के सराब में कभी बाम ओ दर के अज़ाब में
वहाँ उम्र हम ने गुज़ार दी जहाँ साँस लेना मुहाल था,
कभी तू ने ग़ौर नहीं किया कि ये लोग कैसे उजड़ गए
कोई ‘मीर’ जैसा गिरफ़्ता दिल तेरे सामने की मिसाल था,
तेरे बा’द कोई नहीं मिला जो ये हाल देख के पूछता
मुझे किस की आग जला गई मेरे दिल को किसका मलाल था,
कहीं ख़ून ए दिल से लिखा तो था तेरे साल ए हिज्र का सानेहा
वो अधूरी डायरी खो गई वो न जाने कौन सा साल था..!!
~ऐतबार साजिद