लोग बैठे हैं यहाँ हाथों में ख़ंजर ले कर
तुम कहाँ आ गए ये शाख़ ए गुल ए तर ले कर,
भीगे भीगे से मेरे घर के दर ओ बाम मिले
शायद आया था यहाँ कोई समुंदर ले कर,
अब मुझे और किसी शय की तमन्ना न रही
मुतमइन हूँ तेरी दहलीज़ का पत्थर ले कर,
मेरी क़िस्मत में सुलगने के सिवा कुछ भी नहीं
क्या करोगे भला तुम मेरा मुक़द्दर ले कर,
ख़ुश्क होंठों ने मेरे जिस्म का रस चूस लिया
अब कोई आए तो क्या फ़ाएदा साग़र ले कर,
सीधे रस्ते कोई आता ही नहीं मेरी तरफ़
गर्दिश ए वक़्त भी आती है तो चक्कर ले कर,
अपने दिल को न करे अब कोई हल्का आज़र
वर्ना मैं जाऊँगा एक बोझ सा दिल पर ले कर..!!
~मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी