कुछ इस क़दर मैं ख़िरद के असर में आ गया हूँ
सिमट के सारा का सारा ही सर में आ गया हूँ,
ज़मीं उछाल चुकी आसमाँ ने थामा नहीं
मैं काएनात में बिल्कुल अधर में आ गया हूँ,
ये ज़िंदगी भी मेरे हौसलों पे हैराँ है
समझ रही थी कि मैं उस के डर में आ गया हूँ,
ज़रा सा फ़ासला मैं ने भी तय किया तो है
अगर से दो क़दम आगे मगर मैं आ गया हूँ,
मेरी शनाख़्त की ख़ातिर छपी मेरी तस्वीर
न जीते जी सही मर के ख़बर में आ गया हूँ,
उदास हो गया हूँ फिर से एक ज़रा हँस कर
में घूम घाम के फिर अपने घर में आ गया हूँ,
न आ सका मैं तेरे हाथ की लकीरों में
यही बहुत है तेरी चश्म ए तर में आ गया हूँ,
ये सोच कर कि न दूँ नाख़ुदा को ये ज़हमत
उतर के कश्ती से ख़ुद ही भँवर में आ गया हूँ,
छुपा न पाया कभी ख़ुद को अपने शेरों में
मैं जो हूँ जैसा हूँ अपने हुनर में आ गया हूँ..!!
~राजेश रेड्डी
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