कितनी सदियाँ ना रसी की इंतिहा में खो गईं
बे जहत नस्लों की आवाज़ें ख़ला में खो गईं,
रंग ओ बू का शौक़ आशोब ए हवा में ले गया
तितलियाँ घर से निकल कर इब्तिला में खो गईं,
कौन पस मंज़र में उजड़े पैकरों को देखता
शहर की नज़रें लिबास ए ख़ुशनुमा में खो गईं,
मुंतज़िर चौखट पे ताबीरों के शहज़ादे रहे
ख़्वाब की शहज़ादियाँ क़स्र ए दुआ में खो गईं,
साँप ने उनके नशेमन में बसेरा कर लिया
पेड़ से चिड़ियों की महकारें फ़ज़ा में खो गईं,
कोई क्या बाब ए अमाँ आफ़तज़दों पर खोलता
दस्तकें गुलज़ार तूफ़ाँ की सदा में खो गईं..!!
~गुलज़ार बुख़ारी