हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा
एक पैकर में कहाँ क़ैद है पैकर मेरा,
मैं कहाँ जाऊँ कि पहचान सके कोई मुझे
अजनबी मान के चलता है मुझे घर मेरा,
जैसे दुश्मन ही नहीं कोई मेरा अपने सिवा
लौट आता है मेरी सम्त ही पत्थर मेरा,
जो भी आता है वही दिल में समा जाता है
कितने दरियाओं का प्यासा है समुंदर मेरा,
तू वो महताब तकें राह उजाले तेरी
मैं वो सूरज कि अंधेरा है मुक़द्दर मेरा..!!
~बशर नवाज़