बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन…

बिखरे बिखरे सहमे सहमे रोज़ ओ शब देखेगा कौन
लोग तेरे जुर्म देखेंगे सबब देखेगा कौन ?

हाथ में सोने का कासा ले के आए हैं फ़क़ीर
इस नुमाइश में तेरा दस्त ए तलब देखेगा कौन ?

ला उठा तेशा चट्टानों से कोई चश्मा निकाल
सब यहाँ प्यासे हैं तेरे ख़ुश्क लब देखेगा कौन ?

दोस्तों की बेग़रज़ हमदर्दियाँ थक जाएँगी
जिस्म पर इतनी ख़राशें हैं कि सब देखेगा कौन ?

शायरी में ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ के ज़माने अब कहाँ
शोहरतें जब इतनी सस्ती हों अदब देखेगा कौन ??

~मेराज फ़ैज़ाबादी

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