हाए लोगों की करम फ़रमाइयाँ…

हाए लोगों की करम फ़रमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रुस्वाइयाँ,

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ, मजबूरियाँ, तन्हाइयाँ,

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें, बेताबियाँ, अंगड़ाइयाँ,

क्या यही होती है शाम ए इंतिज़ार
आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ,

एक रिंद ए मस्त की ठोकर में हैं
शाहियाँ, सुल्तानियाँ, दाराइयाँ,

एक पैकर में सिमट कर रह गईं
ख़ूबियाँ, ज़ेबाइयाँ, रानाइयाँ,

रह गईं एक तिफ़्ल ए मकतब के हुज़ूर
हिकमतें, आगाहियाँ, दानाइयाँ,

ज़ख़्म दिल के फिर हरे करने लगीं
बदलियाँ, बरखा, रुतें, पुरवाइयाँ,

दीदा ओ दानिस्ता उन के सामने
लग़्ज़िशें, नाकामियाँ, पसपाइयाँ,

मेरे दिल की धड़कनों में ढल गईं
चूड़ियाँ, मौसीक़ियाँ, शहनाइयाँ,

उनसे मिल कर और भी कुछ बढ़ गईं
उलझनें फ़िक्रें, क़यास, आराइयाँ,

‘कैफ़’ पैदा कर समुंदर की तरह
वुसअतें, ख़ामोशियाँ, गहराइयाँ..!!

~कैफ़ भोपाली

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