ग़ालिब ओ यगाना से लोग भी थे जब तन्हा

ग़ालिब ओ यगाना से लोग भी थे जब तन्हा
हम से तय न होगी क्या मंज़िल ए अदब तन्हा,

फ़िक्र ए अंजुमन किस को कैसी अंजुमन प्यारे
अपना अपना ग़म सब का सोचिए तो सब तन्हा,

सुन रखो ज़माने की कल ज़बान पर होगी
हम जो बात करते हैं आज ज़ेर ए लब तन्हा,

अपनी रहनुमाई में की है ज़िंदगी हम ने
साथ कौन था पहले हो गए जो अब तन्हा,

मेहर ओ माह की सूरत मुस्कुरा के गुज़रे हैं
ख़ाक दान ए तीरा से हम भी रोज़ ओ शब तन्हा,

कितने लोग आ बैठे पास मेहरबाँ हो कर
हम ने ख़ुद को पाया है थोड़ी देर जब तन्हा,

याद भी है साथ उन की और ग़म ए ज़माना भी
ज़िंदगी में ऐ जालिब हम हुए हैं कब तन्हा..??

~हबीब जालिब

दयार ए दाग़ ओ बेख़ुद शहर ए देहली छोड़ कर तुझ को

1 thought on “ग़ालिब ओ यगाना से लोग भी थे जब तन्हा”

Leave a Reply