फ़िराक़ ओ हिज्र के लम्हे जो टल गए होते
हमारे ज़ेहन के ख़ाके बदल गए होते,
वो मस्लहत का तक़ाज़ा अगर समझ जाता
तमाम शहर के लहजे बदल गए होते,
अगर शरीक ए सफ़र वो भी हो गया होता
तमाज़तों के ये सूरज भी ढल गए होते,
क़दम उठाए हैं कुछ सोच कर मोहब्बत में
सँभलना होता हमें तो सँभल गए होते,
वफ़ा पसंद अगर वो भी हो गया होता
हमारे रास्ते कितने बदल गए होते,
जो थोड़ी देर न आता ख़याल ए तन्हाई
तुम्हारे शहर की हद से निकल गए होते,
नज़र को मोहलत ए नज़्ज़ारगी अगर मिलती
निगाह ए शौक़ के अरमाँ निकल गए होते..!!
~जमील नज़र