एक रात लगती है एक सहर बनाने में
हम ने क्यों नहीं सोचा हमसफ़र बनाने में ?
मंज़िलें बदलते हो पर तुम्हें नहीं मालूम
उम्रें बीत जाती हैं रहगुज़र बनाने में,
उम्र भर रहा हम पर उस का ही असर हावी
बेअसर रहे जिस पर हम असर बनाने में,
मौज में बनाता हूँ जिस्म जिस परिंदे का
रूह काँप उठती है उस के पर बनाने में,
तेरी याद की गाड़ी कुछ मदद करें शायद
इस तवील रस्ते को मुख़्तसर बनाने में..!!
~अक्स समस्तीपुरी