दर्द मिन्नत कश ए दवा न हुआ…

दर्द मिन्नत कश ए दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ,

जमा करते हो क्यूँ रकीबों को ?
एक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
तू ही जब ख़ंजर आज़मा न हुआ,

कितने शरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियाँ खा के बे मज़ा न हुआ,

है ख़बर गरम उनके आने की
आज ही घर में बोरीया न हुआ,

क्या वो नमरूद की ख़ुदायी थी
बन्दगी में मेरा भला न हुआ,

जान दी, दी हुयी उसी की थी
हक तो यह है कि हक अदा न हुआ,

ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ,

रहज़नी है कि दिल सितानी है
ले के दिल, दिलसितां रवाना हुआ,

कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़लसरा न हुआ..!!

~मिर्ज़ा ग़ालिब

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