छा गया मेरे मुक़द्दर पे अंधेरा ऐ दोस्त
तू ने शानों पे जो गेसू को बिखेरा ऐ दोस्त,
यूँ शब ए ग़म में तेरी याद दबे पाँव आई
तीरगी से हो नुमू जैसे सवेरा ऐ दोस्त,
मैं तो ख़ामोश था चुप रह न सके ज़ख़्म के लब
मैं ने समझा है सदा तुझ को मसीहा ऐ दोस्त,
एक शबनम ही जहाँ रात गए रोती है
दिल हुआ मेरा मिसाल ए गुल ए सहरा ऐ दोस्त,
वो निशाँ अहल ए ख़िरद कहते हैं जिस को मंज़िल
नक़्श ए पा से है जुनूँ के वो हुवैदा ऐ दोस्त,
कश्ती ए ज़ीस्त को हासिल हुई गिर्दाब ए अमीक़
बहर ए उल्फ़त में मिला किस को किनारा ऐ दोस्त ?
तेरे गेसू मेरी उलझन के ख़तावार नहीं
तूने उन को तो कई बार सँवारा ऐ दोस्त,
लुट गया अब तो मताअ ए ग़म ए तन्हाई भी
किस अदा से तेरी यादों ने पुकारा ऐ दोस्त,
फिर ये चर्चा है वो आएँगे सर ए बज़्म वहीद
छुट न जाए कहीं दामान ए शकेबा ऐ दोस्त..!!
~वहीद अर्शी