बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मेरा है
आँखें भी मेरी ख़्वाब ए परेशाँ भी मेरा है,
जो डूबती जाती है वो कश्ती भी है मेरी
जो टूटता जाता है वो पैमाँ भी मेरा है,
जो हाथ उठे थे वो सभी हाथ थे मेरे
जो चाक हुआ है वो गिरेबाँ भी मेरा है,
जिसकी कोई आवाज़ न पहचान न मंज़िल
वो क़ाफ़िला ए बे सर ओ सामाँ भी मेरा है,
वीराना ए मक़तल पे हिजाब आया तो इस बार
ख़ुद चीख़ पड़ा मैं कि ये उनवाँ भी मेरा है,
वारफ़्तगी ए सुब्ह ए बशारत को ख़बर क्या
अंदेशा ए सद शाम ए ग़रीबाँ भी मेरा है,
मैं वारिस ए गुल हूँ कि नहीं हूँ मगर ऐ जान
ख़मयाज़ा ए तौहीन ए बहाराँ भी मेरा है,
मिट्टी की गवाही से बड़ी दिल की गवाही
यूँ हो तो ये ज़ंजीर ये ज़िंदाँ भी मेरा है॥
~इफ़्तिख़ार आरिफ़