बला वो टल गई सदक़े में जिस के शहर चढ़े
हमें डुबो के न अब कोई ख़ूनी नहर चढ़े,
बढ़ा जो मैं थके क़दमों ने बददुआ ये दी
क़दम क़दम तुझे पगडंडियों का ज़हर चढ़े,
वही मिलन का समाँ उस से माँझियो होगा
नदी में चाँद की जब नाव लहर लहर चढ़े,
ख़ुदा करे तेरा तन मन रहे यूँही उजला
न तेरे गाँव पे गर्द ए हवा ए शहर चढ़े,
ढकूँ बदन तो गए मौसमों की बू महके
बदन को खोलूँ तो भीगी रुतों का ज़हर चढ़े,
बना वो चाँद मुसव्विर तो उस पे क़ैद लगी
न अब मकानों की छत पर वो जान ए दह्र चढ़े..!!
~निदा फ़ाज़ली