बात अब करते है क़तरे भी समंदर की तरह
लोग ईमान बदलते है कलेंडर की तरह,
कोई मंज़िल न कोई राह न मकसद कोई
है ये जनतंत्र यतीमो के मुक़द्दर की तरह,
बस वही लोग बचा सकते है इस कश्ती को
डूब सकते है जो मंझधार में लंगर की तरह,
मैंने ख़ुशबू सा बसाया था जिसे तन मन में
मेरे पहलू में वही बैठा है खंज़र की तरह,
मेरा दिल झील के पानी की तरह काँपा था
तुमने वो बात उछाली थी जो कंकर की तरह,
जिनकी ठोकर से किले काँप के ढह जाते थे
कल की आँधी में उड़े लोग वो छप्पर की तरह..!!