अज़ीब ख़्वाब था उसके बदन पे काई थी
वो एक परी जो मुझे सब्ज़ करने आई थी,
वो एक चरागकदा जिसमे कुछ नहीं था मेरा
जो जल रही थी वो कंदील भी पराई थी,
न जाने कितने परिंदों ने उसमे शिरकत की
कल एक पेड़ की तकरीब रौ नुमाई थी,
हवाओं आओ अब मेरे गाँव की तरफ़ देखो
जहाँ पे अब रेत पड़ी है पहले यहाँ तराई थी,
सिपाह ए सल्तनत ने ख़ेमे लगा दिए है वहाँ
जहाँ पे कभी मैंने निशानी तेरी दबाई थी,
गले मिला था कभी दुःख भरे दिसम्बर से
तब मेरे वज़ूद के अंदर भी धुंध छाई थी..!!