आयत ए हिज्र पढ़ी और रिहाई पाई
हमने दानिस्ता मुहब्बत में जुदाई पाई,
जिस्म ओ इस्म था जो किसी शब न खुला
इश्क़ वो ज़र था कि लगता था खुदाई पाई,
यार ता उम्र तेरा हिज्र संभाले रखा
तूने क्या चीज भला मुझ में पराई पाई ?
इश्क़ वो क़र्ज़ कि जो रूह के हिस्से आया
उम्र भर कटती रही साँस की पाई पाई,
जिन दिनों ख़ाक उड़ाती थी हवाएँ बन में
उन दिनों हम ने मुहब्बत में कमाई पाई..!!