मुझ में है खामियाँ मुज़रिम बता रहे है
ताअज्ज़ुब है अँधे आईना दिखा रहे है,
ज़ुल्म तो ये है कि खेल कूद की उम्रो में
हमारे बच्चे बस्तों का बोझ उठा रहे है,
उसमे भी है कशिश शक्ल ए ज़मीं जैसी
हम उसकी ही ज़ानिब खीचे जा रहे है,
कुछ लोग नमाज़ अदा करने के बाद
अपने ही हमसायों की दीवारे गिरा रहे है,
अब भी कम शनास है अहल ए वतन
पत्थर की खातिर लोग हीरे गँवा रहे है..!!