ऐ यक़ीनों के ख़ुदा शहर ए गुमाँ…

ऐ यक़ीनों के ख़ुदा शहर ए गुमाँ किस का है
नूर तेरा है चराग़ों में धुआँ किस का है ?

क्या ये मौसम तेरे क़ानून के पाबंद नहीं
मौसम ए गुल में ये दस्तूर ए ख़िज़ाँ किस का है ?

राख के शहर में एक एक से मैं पूछता हूँ
ये जो महफ़ूज़ है अब तक ये मकाँ किस का है ?

मेरे माथे पे तो ये दाग़ नहीं था पहले
आज आईने में उभरा जो निशाँ किस का है ?

वही तपता हुआ सहरा वही सूखे हुए होंठ
फ़ैसला कौन करे आब ए रवाँ किस का है ?

चंद रिश्तों के खिलौने हैं जो हम खेलते हैं
वर्ना सब जानते हैं कौन यहाँ किस का है..!!

~मेराज फ़ैज़ाबादी

Leave a Reply