अब रहा क्या जो लुटाना रह गया

अब रहा क्या जो लुटाना रह गया
ज़िंदगी का एक ताना रह गया,

एक तअल्लुक़ जिन से था दिल को कभी
अब वो रिश्ता ग़ाएबाना रह गया,

था जो अफ़्साने में अफ़्साने की जान
एक वही जुमला बढ़ाना रह गया,

ज़िंदगी की लज़्ज़तें रुख़्सत हुईं
एक तख़य्युल शायराना रह गया,

सोचता हूँ और याद आता नहीं
जाने क्या उन को बताना रह गया ?

उलझनें माज़ी की सुलझाएँ मगर
हाल ओ मुस्तक़बिल में शाना रह गया,

कुछ न रहने के यहाँ हालात हों
ये भी क्या कम है फ़साना रह गया,

जाएज़ा उस ने लिया रुख़ का नज़र
सामने के रुख़ तक आना रह गया..!!

~जमील नज़र

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