आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह
बद दुआएँ हैं लबों पर अब दुआओं की जगह,
इंतिख़ाब ए अहल ए गुलशन पर बहुत रोता है दिल
देख कर ज़ाग़ ओ ज़ग़्न को ख़ुश नवाओं की जगह,
कुछ भी होता पर न होते पारा पारा जिस्म ओ जाँ
राहज़न होते अगर उन रहनुमाओं की जगह,
लुट गई इस दौर में अहल ए क़लम की आबरू
बिक रहे हैं अब सहाफ़ी बेश्याओ की जगह,
कुछ तो आता हम को भी जाँ से गुज़रने का मज़ा
ग़ैर होते काश जालिब आश्नाओं की जगह..!!
~हबीब जालिब